पुस्तक चर्चा
‘वो तेरे
प्यार का ग़म’ - ईशमधु तलवार
-
भाग
चंद
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार ईशमधु तलवार की
खोजी पत्रकारिता की शोधपरक कृति है पुस्तक ‘वो तेरे प्यार का ग़म’।
यह पुस्तक जयपुर के संगीतकार दानसिंह पर आधारित है। बेहद
चर्चित रहे गीत ‘वो तेरे प्यार का
गम’ तथा ‘जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है’ ये बहुत लोग परिचित हैं। पर बहुत कम लोग जानते
हैं कि इनका संगीत दानसिंह ने दिया था। बकौल ईशमधु तलवार
‘एक पिकनिक में हम कुछ लोग
गये थे। जब पिकनिक पूरे जोश पर थी तो मैंने अपना प्रिय गीत गाया, ‘वो तेरे प्यार का ग़म इक बहाना था सनम अपनी
किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया।’ गीत खत्म होने के बाद पर्यटन विभाग के एक अधिकारी मेरे पास आये और बोले,
‘आपको मालूम है इस गीत का संगीतकार कौन है?
वह जयपुर का दानसिंह है, जो आज भी पुरानी बस्ती में रहता है।’ इस रहस्य को सुनकर मैं चौंक गया। मैंने तो सुना था कि
दानसिंह की मुम्बई में ही मृत्यु हो गई।’
ईशमधु तलवार दानसिंह की खोज में जुट गये। बहुत खोज-बीन के
बाद आखिरकार
उन्होंने दानसिंह को लाल प्याऊ इलाके में अपनी डॉक्टर पत्नी के साथ
गुमनाम सी ज़िन्दगी जीते पा ही लिया। फिर तो ईशमधु तलवार और दानसिंह की प्रगाढ़ता
बढ़ती चली गई। उनकी मुलाकातें रोज-मर्रा की बातें हो गई। ईशमधु तलवार और दानसिंह की
अंतरंग मित्रता का ही परिणाम है यह पुस्तक। पुस्तक में बताया गया है कि किस तरह
प्रतिभाशाली रचनाकार भी अपनी पहचान बनाने में विफल हो जाते हैं और हाशिये पर धकेल
दिये जाते हैं। पुस्तक एक विलक्षण संगीतकार के निरन्तर असफलता के स्याह पन्नों से
आपको रूबरू कराती है। लेखक ने पुस्तक को बहुत ही रोचक शैली में लिखा है। ऐसा कि आप
एक बार पुस्तक पढ़ने बैठेंगे तो पूरी करके ही उठेंगे और पढ़ चुकने के बाद संगीतकार
दानसिंह आपके दिलो-दिमाग पर छा जायेंगे। आप अनायास ही उनका प्रिय गाना ‘वो तेरे प्यार का गम’ गुनगुनाने लगेंगे।
पुस्तक में दानसिंह के बचपन का एक बहुत ही रोचक किस्सा उनकी
ही जुबानी दिया गया है, ‘बचपन में मेरा
पढ़ाई में मन नहीं लगता था। गिल्ली-डंडा, फुटबाल, कैरम और पतंगबाजी
में मजा आता था। पतंग अब भी मकर संक्रान्ति पर उड़ा लेता हूँ। दंगल का पतंगबाज रहा
हूँ। मेरे ताऊजी के बेटे भाई मोहन सिंह से मेरी दोस्ती थी। ताऊजी पढ़ाई के कारण मोहन
सिंह को घर से बाहर नहीं निकलने देते थे। मैं उसे घर बुलाने जाता तो मुझे मना करते,
डाँटते। कहते-तू मेरे बेटे को बिगाड़ेगा। फिर
हमने मिलने की सूरत निकाली कि जब मैं कोयल की आवाज निकालता, तब वह घर से बाहर आ जाता। हम तब जयपुर के चौगान स्टेडियम
में खेलने जाते थे।’
आगे चलकर जब दानसिंह के दादाजी को उनकी कोयल की इस विशुद्ध
आवाज़ का रहस्य मालूम हुआ तो उन्हें अचरज हुआ और उन्होंने घोषणा कर दी आज से इसका
नाम दामोदर नहीं दानसिंह होगा। यह प्रकृति के इतने निकट पहुँच गया है कि इसकी
प्रतिभा अद्वितीय होगी। समाज को यह अपनी कला का दान करेगा। आगे जाकर यह संगीत में
जरूर कुछ करेगा।
उनकी कही बात सच साबित हुई। दानसिंह निरन्तर अपनी संगीत की
कला का दान ही करते रहे। उन्हें अपनी इस प्रतिभा के प्रतिफल के रूप में बहुत ही कम
मिला। पुस्तक में दानसिंह के मुम्बई जाने से पूर्व आकाशवाणी के भी कुछ रोचक किस्से
हैं।
‘दानसिंह आकाशवाणी दिल्ली में कंपोजर के रूप में
कार्यरत थे। उन्हें पंत की एक कविता अलक-पलक श्यामल स्वर्णिम...’ की धुन बनानी थी और उसे गाना भी था। अखबारों
में रोज छपने वाली आकाशवाणी के कार्यक्रमों की सूची में यह कार्यक्रम भी छपा। इसे
देखकर सुमित्रा नंदन पंत ने आकाशवाणी के केन्द्र निदेशक को फोन किया-यह कौन
दानसिंह है जो मेरी रचना को गाएगा? कोई सिक्ख बच्चा
है क्या? निदेशक ने उन्हें आश्वस्त
किया कि उनकी रचना का गायन अच्छा ही होगा।
बाद में जब दानसिंह ने आकाशवाणी पर पंत की रचना का पाठ किया
तो कुछ देर के बाद ही आकाशवाणी में पंत जी का फोन आ गया-‘जिस बच्चे ने अभी मेरी रचना का पाठ किया है, उसे रोककर रखें। मैं आकाशवाणी आ रहा हूँ।’
दानसिंह को लगा कि शायद कुछ गड़बड़ी हुई है। वे
डरते हुए पंत जी का इंतजार करते रहे। पंत जी आये और उन्होंने दानसिंह की पीठ थपथपाई
तथा कहा-‘अभी, मेरे साथ चलो। भोजन साथ ही करेंगे।’ पुस्तक में उन सभी फिल्मों के बारे में विस्तार
से बताया गया है कि जिनमें दानसिंह ने अपना संगीत दिया। वे फिल्में थी-माय लव,
तूफान और भूल ना जाना। इसके अतिरिक्त दो अन्य
फिल्मों बवण्डर और भोभर में भी दानसिंह ने अपना संगीत दिया। ये दोनों राजस्थानी
गानों से सजी फिल्में थीं। भोभर उनकी अन्तिम फिल्म रही। पर इनमें से कुछ फिल्में
तो प्रदर्शित ही नहीं हो सकीं और कुछ फिल्मों में उन्हें वह क्रेडिट नहीं दिया गया,
जिसके वे हकदार थे। पुस्तक में उन सभी घटनाओं
के बारे में आप पढ़ेंगे जिस कारण ऐसी स्थितियाँ बनी। यही वजह रही कि जिस संगीतकार
के संगीत से सजे गीत लोगों की जुबान पर थिरकते रहे उस संगीतकार को अपनी मेहनत का
पारिश्रमिक भी नहीं मिल सका। ईशमधु तलवार ने युवा कवि एवं साहित्यकार दुष्यन्त के
साथ प्रयास करके दानसिंह को बीमारी के अन्तिम दिनों में 15 हजार का चैक रायल्टी के रूप में दिलवाया। वह चैक देखकर
दानसिंह की आँखों में आँसू आ गये।
पुस्तक में इस प्रसंग को पढ़कर पाठक इस बात का अनुमान सहज ही
लगा सकता है कि पुस्तक लेखक दानसिंह से किस कदर जुड़े हुए थे और उनके लिए कितने
फिक्रमन्द थे।
पुस्तक में दानसिंह की धुनों की किस तरह चोरी हो जाती थी और
फिर आनन-फानन में उन्हें दूसरी धुनें बनानी पड़ती थीं, के भी कई किस्से हैं। जो दानसिंह के सीधेपन को बखूबी बयां
करते हैं।
जैसे-एक बार मुकेश दानसिंह के पास ‘पुकारो, मुझे नाम लेकर
पुकारो’ गाना रिकार्ड करवाने आये।
मुकेश गीत की धुन सुनकर बोले-‘इस धुन पर तो मैं
अभी एक गीत रिकार्ड करा कर आ रहा हूँ।’ ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी
पूजा।’ दानसिंह ने कहा, ‘यह धुन वहाँ कैसे चली गई?’ इस पर मुकेश का जवाब था-‘दानसिंह जी, यह बम्बई है। आप
तरल-गरल पार्टियों में लोगों को धुन सुना देंगे तो यही होगा। इस पर दानसिंह ने कहा,
‘इससे क्या फर्क पड़ता है। आप एक घंटे बाद आ
जाइये मैं नई धुन तैयार करता हूँ।’ और उन्होंने जो
धुन तैयार की वह आज भी ‘यू-ट्यूब पर
सुनते हुए लोगों को भीतर तक हिला देती है। दानसिंह की और भी बहुत सी धुनें इसी तरह
चोरी हो गई थीं लेकिन उनको इसका कोई मलाल नहीं रहा।’ पुस्तक में दानसिंह के जीवन से जुड़े हुए कुछ चित्र भी हैं
जो दानसिंह की विभिन्न छवियों से अवगत कराते हैं। ये हमें दानसिंह के जीवन के
दुर्लभ झरोखों में झाँकने का अवसर देते हैं। पुस्तक के अन्त के पृष्ठों में उन सभी
गानों की सूची फिल्मों सहित दी गई है, जिनका संगीत दानसिंह ने तैयार किया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दानसिंह
के व्यक्तित्व और कृतित्व तथा उनके जीवन में घटी त्रासदियों को उजागर करती एक यह
एक अनूठी पुस्तक है।
यह पुस्तक एक सामान्य पाठक को भी उतनी ही रूचिकर लगेगी
जितनी फिल्म, संगीत और साहित्य
से जुड़े लोगों को। चूँकि ईशमधु तलवार सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं हैं बल्कि एक अच्छे
साहित्यकार भी हैं इसलिए उन्होंने पुस्तक के साथ पूरा न्याय किया है। चमकते हुए
सितारों पर बहुत लोग लिखते हैं। ईशमधु तलवार ने गर्दिश में पड़े हुए और गुमनामी के
अंधेरे में खोये हुए व्यक्ति पर लिखकर अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वहन किया है।

भाग चंद
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Book Review : ‘Wo tere pyar ka gam’ – IshMadhu
Talwar