– प्रभात रंजन
जे सुशील भी ग़ज़ब के बुलेटबाज़ हैं। बुलेट प्रेमी तो बहुत देखे बुलेटबाज नहीं देखा।
मीनाक्षी जी और जे सुशील इस बार बुलेट से कश्मीर हो आये। उनकी बुलेट देखकर मुझे
मुज़फ्फरपुर में 80 के दशक में सुना यह गाना याद आता है। वहां की मशहूर बाई चंदा गाती थी- ‘बलमा हमार ह बुलेट जइसन राजा/ ऐसे बजे जैसे जुल्मी के बाजा ...’ प्रस्तुत है उनकी ‘बुलेट डायरी’ –
“ये घुंघरू क्यों बांधे
हैं इसमें? इस’से बुलेट की चाल में फर्क पड़ता है क्या? अच्छा इसी से चले गए तुम दोनों। बाकी
साथी कहां हैं तुम्हारे।” (श्रीनगर-जम्मू हाईवे पर भीषण जाम के दौरान)
“कहां से आए हो?”
“दिल्ली से”
“बाइक पर ही।”
“हां।”
“कहां जाओगे।”
“श्रीनगर। हम बस दो ही
हैं।”
“अरे भई बीवी है कार वार
में जाया करो।”
“बीवी ने ही कहा कि बुलेट
पर चलना है।”
“अच्छा अच्छा। फिर तो
एन्जॉय करो।” (जवाहर सुरंग से पहले कश्मीर ट्रैफिक पुलिस)
“बुलेट तो हरी भरी लगती
है कहां से आ रहे हो?” (वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ट्रैफिक जाम खुलवाने की कोशिश के समय)
“बाय दे वे। नाइस राइड।” (कश्मीरी युवा निशात
बाग की पार्किंग में)
सीटी। सीटी और हो हो की आवाज़ें।
(श्रीनगर डल झील के पास स्टंट करते जवान लौंडे)
“मस्त गाड़ी बनाया यार।” (डल के पास चाय पीते
हुए अनजाना युवक)
थम्स अप का संकेत देते तीन युवक
जो हार्ले डेविडसन पर सवार हैं (उधमपुर के पास बारिश में गुजरते हुए)
हम समूह में चलने वाले बाइकर्स
नहीं थे। हमने कपड़े भी अलग पहने थे। हम धीमे धीमे चलते थे। मंथर गति से। रास्ते
पर आम तौर पर गाड़ियां हमसे आगे निकल जाती और मैं अपनी बुलेट को थपथपाता ये कहता
हुआ। कि थोड़ा सामान ज्यादा लदा है।
हम लोगों को देखते हुए चलते और
जानने की कोशिश करते वो क्या सोचते हैं। दिल्ली
से पंजाब का रास्ता लंबा और उबाऊ
है जिसमें देखने के लिए कुछ ख़ास नहीं है। हाईवे। लंबे ओवरब्रिज और चंडीगढ़ से
पहले तक ढाबों की भरमार। तेज़ी से निकलती हरियाणा रोडवेज़ की बसें और एक्सीडेंट
करने को तत्पर दिखती फॉर्चूनर और स्कार्पियो जैसी बड़ी गाड़ियां। लेकिन इन सबमें
बैठे लोग हमें देखते। कोई मुस्कुराता। कोई झेंप जाता। कोई चक्कर में पड़ जाता तो
कोई भौचक रह जाता कि आखिर माज़रा क्या है। असल में वो पहले मुझे देखते। फिर हरे
रंग की बुलेट को। और हरी-हरी हेलमेटों को। फिर पीछे बैठी लड़की को जिसके हाथों में
हरी-हरी चूड़ियां हैं। ये सब मिलकर उन्हें कन्फ्यूज़ कर देता होगा। ऐसा मुझे लगता
है। पंद्रह दिन, करीब 1400 किलोमीटर, छह शहर ( कुरुक्षेत्र, जालंधर, अमृतसर, उधमपुर, श्रीनगर, पहलगाम) तीन पेंटिंग्स और ढेर
सारी प्रतिक्रियाएं। श्रीनगर और जम्मू में जो सुना वो ऊपर है। बाकी दिल्ली से
पंजाब तक जो सुना-देखा वो कुछ यूं है -
बुजुर्गा ने देख के मुस्कुरांदे हैं।
लड़के नू देख के चकरांदे हैं। बच्चे नू देख के अक्ख चुरांदे हैं।
ते लड़कियां असी देख के स्माइल
पास करंदी हैं। ते बस विच बैठी औरतां हमें देख के भौंहें चढांदी हैं। मानो पुच्छ
रही हों। जे क्या बला है हरी भरी।
हम सड़क दे बाशिंदे हैं। हरी
बुलेट वाले। हरी हेलमेट वाले। असी जा रयां पेंटिंग करन वास्ते।
बसां वाली औरतां ने नहीं सुनी जै
बात। सड़क ने सुनी। हमने दिल से जिसे कहा उसने सुनी। उन बुल्ट वालों ने सुनी जो
हाथ हिला कर हमसे आगे निकल गए।
असी पीछे छुट्ट गए। धीमे धीमे। रंगा
नू विच। असी बैड फील नहीं करंदे। असी रंग भरेंगे। उन्ना दी घरां विच जो हमें
बुलाएंगे अपने दिलां विच कोई कैसे किसी अजनबी को अपने घरां विच रोक लैंदा है। उसे
रोटी खिलांदा है पानी पिलांदा है। क्या असी फेमस हो गए। ना रे बच्चे। तेरे दिल विच
भगवान बैठ्या सी। गुरु महाराज दा आशीर्वाद है। अच्छी आत्माओं दा भला होंदा है हर
जगह।
दिल्ली से श्रीनगर के बीच बुलेट
ने कहीं परेशान नहीं किया। हां गर्मी ने मीनाक्षी को बेहाल ज़रुर किया। और मुझे
बेतरह थकाया। पेंटिंग के मामले में नए एक्सपेरिमेंट्स किए। मार्कर के साथ। दक्षिण
से अलग अनुभव रहा उत्तर भारत का जिसने हम तीनों को तैयार किया एक नई यात्रा के लिए।

प्रभात रंजन
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‘Sudheel’ Buletbaj ki Bullet Dairy -